लेखक – मनोज अभिज्ञान




वाशिंगटन पोस्ट की रिपोर्ट ने मोदी सरकार की विदेश नीति की पोल खोल दी है। पाकिस्तान-शासित कश्मीर की जमीनी हकीकत को उजागर करते हुए अखबार ने दिखाया है कि कैसे भारत की आक्रामक कार्रवाइयों ने उलटा असर डाला है—जो क्षेत्र कभी इस्लामाबाद से नाराज़ था, वहां अब पाकिस्तान के समर्थन में नारे गूंज रहे हैं। यह वही इलाका है जहाँ लोग खुद को पहले कश्मीरी मानते थे, न कि पाकिस्तानी। लेकिन अब, जब भारतीय गोलों ने उनके घरों को राख में बदल दिया, तो वे लोग जो पाकिस्तान से नाराज़ थे, अब उसके साथ खड़े हैं। यह बदलाव सिर्फ बमों से नहीं हुआ, बल्कि भारत की कूटनीतिक विफलता से हुआ—जिसने एक बार फिर पाकिस्तान को नैतिक बढ़त लेने का मौका दे दिया।
जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप संघर्ष विराम की घोषणा करते हुए कश्मीर पर मध्यस्थता की बात करते हैं, तो यह भारत की उस परंपरागत नीति पर सीधा तमाचा है जो कश्मीर को द्विपक्षीय मुद्दा बताकर तीसरे पक्ष को हमेशा दरकिनार करती रही है। आज, अमेरिका खुलकर कह रहा है कि वह भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर का हल निकालने की कोशिश करेगा—क्या यह मोदी सरकार की कूटनीतिक पराजय नहीं है? यह वही सरकार है जो ‘विश्वगुरु’ बनने का दावा करती है, लेकिन अपने ही पड़ोस में शांति बनाए रखने में विफल रही है।
The Washington Post की ज़मीनी रिपोर्टिंग बताती है कि कैसे पाकिस्तानी सेना ने पत्रकारों को क्षतिग्रस्त स्कूलों और मकानों में ले जाकर यह दिखाया कि भारत की गोलाबारी कितनी निर्दयी रही। एक स्कूल की टूटी छत से झांकता पोस्टर छात्रों को कह रहा था: “Don’t fight” — लेकिन भारत की विदेश नीति ने शायद यह संदेश पढ़ना ही बंद कर दिया है। कश्मीर के युवाओं के मन में भविष्य की जो उम्मीद बची थी, वह अब खंडहरों में दबी पड़ी है।
और सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि अब वो स्वतंत्रतावादी समूह, जो पाकिस्तान और भारत दोनों से आज़ादी की बात करते थे, वे भी भारत की कार्रवाइयों से इस कदर आहत हैं कि पाकिस्तान को ‘आवश्यक बैलेंस’ मानने लगे हैं। ये वही लोग हैं जो कल तक पाकिस्तान के फौजी कब्जे के खिलाफ बोलते थे, आज भारत के हमले ने उन्हें पाकिस्तान के पाले में ला खड़ा किया है।
क्या यह मोदी सरकार की विदेश नीति की सफलता है? या यह उस नासमझ, दिखावटी राष्ट्रवाद की कीमत है जो घरेलू राजनीति में तालियाँ तो बटोरता है, लेकिन सीमा पार हर नैतिक और रणनीतिक बढ़त खो बैठता है? भारत सरकार को Washington Post की इस एकतरफा और भावनात्मक रिपोर्ट पर कड़ा प्रतिवाद दर्ज कराना चाहिए—क्योंकि जब भारतीय मीडिया इतना शानदार काम कर रहा है, तो किसी विदेशी अख़बार की ज़रूरत ही क्या है! हमारे न्यूज़ चैनल पहले ही तय कर चुके हैं कि देशभक्ति क्या है, सच्चाई कैसी होनी चाहिए, और कश्मीर में असल में कौन सफाई अभियान चला रहा है।
Washington Post को भी यह समझना चाहिए कि भारत में रिपोर्टिंग का काम अब पत्रकारों का नहीं, गला फाड़कर चीखते एंकरों का है—जो माइक से मिसाइल चलाते हैं और स्क्रीन पर दुश्मनों की अर्थी सजाते हैं। सरकार को चाहिए कि वह Washington Post को समझाए कि हमें तथ्यों की नहीं, भावनाओं की ज़रूरत है—और भावनाओं का सबसे प्रामाणिक स्रोत हमारे न्यूज़ चैनल हैं।