बस्तर: विकास के नाम पर आदिवासी अस्तित्व का सुनियोजित विस्थापन

फेसबुक पर लिखें गुजरात के आदिवासी के नेता छोटू भाई वसावा

क्या बस्तर में आदिवासी खत्म हो रहा है या खत्म किया जा रहा है ? छत्तीसगढ़ के बस्तर में बीते 50 वर्षों से सरकारी हिंसा के द्वारा काॅरपोरेट के उद्योगपतियों को जमीनें देने के लिए आदिवासियों को नक्सली बताकर मारे जाने का तितिम्मा चल रहा है। ऐसा नहीं है कि बस्तर में नक्सलवादी नहीं हैं। ज़रूर हैं। उनकी हिंसा भी है।कांग्रेस और भाजपा दोनों एक के बाद एक अदाणी, अंबानी, टाटा, एस्सार, जायसवाल, जिंदल, मित्तल, वेदांता जैसे काॅरपोरेटियों के सुरक्षाकर्मी हैं। आदिवासियों और जनता को भ्रम है कि वे अपनी भलाई की सरकार चुनते रहे हैं। भारतीय लोकतंत्र में सरकार जनता की भलाई की नहीं होती उद्योगपतियों की मलाई की होती है। भाजपा की हुकूमत में रहते बस्तर में सरकारी गोलीकांड हुए। भाजपा के बड़े नेताओं की ज्ञानेन्द्रियां उस वक्त आराम फरमा रही थीं। वे देख सुन नहीं पाए।

यही हाल कांग्रेस का हो जाता है। उसके नेता पी चिदंबरम ने तो ग्रीन हंट नाम का शब्द ईजाद किया। काॅरपोरेट जिसका मतलब इशारे में समझता है जंगल साफ करो, आदिवासी को बेदखल करो, आदिवास को भारत के इतिहास की यादों से मिटा दो। ।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। सिलगेर से सरकारी हिंसा की खबरें आती रही हैं लेकिन कांग्रेस नेतृत्व में चुप्पी जतन से है। मानो कोई यज्ञ हो रहा है और राक्षस ही मारे जा रहे हैं। कांग्रेस में पहली बार अध्यक्ष सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री डाॅ. मनमोहन सिंह और उपाध्यक्ष राहुल गांधी अपने सियासी परिवार में हुई थोकबन्द हत्याओं के कारण दौड़कर बस्तर आए थे। कांग्रेस के कई बड़े नेता विद्या चरण शुक्ल सहित उसमें एक साथ मार दिए गए थे। जघन्य हत्याकांड हुआ। कांग्रेसियों में क्षोभ, आक्रोश, गुस्सा और आंदोलित होना स्वाभाविक था। सलवा जुडूम की विवादग्रस्तता के बावजूद आदिवासी नेता महेन्द्र कर्मा वनैले पशुओं की तरह नक्सलियों द्वारा भून दिए जाने का नसीब तो नहीं लाए थे! बस्तर का जंगल आदिवासी का परिवेश, नक्सलियों का गोपनीय ठौर और काॅरपोरेट ठेकेदारों की ऐशगाह और सरकारी अधिकारियों और मंत्रियों के लिए दलाली वसूलने का अड्डा है। सरकारी अधिकारी और राजनेता लूट खसोट में अपनी चौथ वसूलते ही हैं। संसद नींद से जागकर कभी-कभी कुछ कानून बना देती है। उनका पालन करना सुप्रीम कोर्ट की लगातार कमजो़र समझाइश के चलते आज तक नहीं हो पाया। केन्द्रीय योजना आयोग की टीम के विशेषज्ञ दल की 2007 के महत्वपूर्ण सुझावों को पढ़ा तक नहीं गया।

राज्यपाल भारतीय संविधान की पांचवीं अनुसूची का छोटा सा परिच्छेद पढ़ने की जहमत तक नहीं उठाते। कई संविधान विमुख संविधान च्युत रिटायर या हारे हुए नेता सात सितारा सुख भोगते राज्यपाल बने रहते हैं। केन्द्र सरकार ने भी कभी राज्यपालों से नहीं कहा कि पांचवीं अनुसूची के आदिवासी अनुकूल प्रावधानों पर कड़ाई से अमल करें। केन्द्रीय राज्यमंत्री किशोरचंद्र देव शायद पहले राजनीतिज्ञ रहे जिन्होंने अनुसूची के प्रावधानों के लागू नहीं होने से खुलकर असंतोष व्यक्त किया। थोड़ा अहसास मणिशंकर अय्यर और जयराम रमेश को भी रहा है।

राजनीति के मैदान में आदिवासी गेश फुटबॉल है। राज्य और केन्द्र सरकारें उसे लतियाने का सुख लेती रहती हैं। बस्तर के खलनायकों में काॅरपोरेटी, व्यापारी, दलाल और बाहरी ऊंची सवर्ण जातियों के लुटेरे भी हैं जिनके लिए कभी बहुजन समाज पार्टी ने नारा दिया था इनको मारो जूते चार। वे अब तक वन संपत्ति, आदिवासी महिलाओं की अस्मिता, संस्कृति और सामाजिक जीवन की अस्मत को लूट ही रहे है। दोनों राष्ट्रीय पार्टियों में बड़े पदों पर आदिवासी इलाकों में गैरआदिवासी काबिज होते हैं। आरक्षित पदों को छोड़ शोषितों और दलितों के गुणात्मक विकास पर दोनों पार्टियां श्वेतपत्र जारी नहीं कर सकतीं। उनके दृष्टिकोण में बूर्जुआ समझ की सड़ांध होती है। कम्युनिस्टों ने भी मनीष कुंजाम जैसे कुछ नेताओं के अपवाद को छोड़कर अपनी भूमिका का मुनासिब निर्वाह नहीं किया। अरुंधति राॅय, स्वामी अग्निवेश, गौतम नवलखा, पी.यू.सी.एल., वरवरा राव, कवि गदर जैसे कई सामाजिक कार्यकर्ता नक्सलियों के प्रति अनुराग रखने के आरोप के कारण सही भूमिका का निर्वाह करते नहीं प्रचारित हो पाते हैं।

बस्तर के आदिवासियों का पीढ़ी दर पीढ़ी कुदरती चरित्र आदमखोर षड़यंत्र के द्वारा हिंसा के सांचे में ढाला जा रहा है। नक्सलवाद भी घने जंगलों, संवैधानिक नकार, आदिवासी दब्बूपन, प्रशासनिक नादिरशाही, काॅरपोरेट जगत की लूट, राजनीतिक दृष्टिदोष और सुरक्षा बलों की नासमझ बर्बरता का भी परिणाम है। राजनीतिक पार्टियों की सत्ता में अदलाबदली से समस्या का समाधान नहीं होता। लोकतांत्रिक ताकतें एकजुट होकर आईने के सामने खड़ी नहीं होतीं कि उन्हें इन इलाकों के नामालूम आदिवासियों के लिए संविधान की शपथ का पालन करना है।

सरकारें और चुनाव आयोग मिलकर किसी तरह पांच वर्ष में एक बार चुनाव कराते हैं। मीडिया पिटे हुए मुहावरों की भाषा में सरकार और काॅरपोरेट गठजोड़ के खिलाफ अभियान छेड़ने के बदले शासकीय घोषणाओं के विज्ञापन वसूलते सनसनी फैलाता है। अपनी चौथ भी वसूल करता है। रक्षा-विशेषज्ञ शासकीय हिंसा के विस्तार के लिए तर्कशास्त्र गढ़ते हैं। मानव अधिकारों के खिलाफ संसदीय कानून लगातार सख्त हो रहे हैं। गांधी द्वारा बताए गए अंतिम व्यक्ति से ज़्यादा उपेक्षित आदिवासी धीरे धीरे सभ्यता, जंगल और इतिहास से गायब किए जा रहे हैं।

{“remix_data”:[],”remix_entry_point”:”challenges”,”source_tags”:[“local”],”origin”:”unknown”,”total_draw_time”:0,”total_draw_actions”:0,”layers_used”:0,”brushes_used”:0,”photos_added”:0,”total_editor_actions”:{},”tools_used”:{“square_fit”:1},”is_sticker”:false,”edited_since_last_sticker_save”:true,”containsFTESticker”:false}

बस्तर की तरह लूट कोरबा के कोयले की हो रही है। मसलन हरियाणा के कुछ परिवार अरबपति, खरबपति होते गए हैं, लेकिन स्थानीय नौजवानों को नौकरी तक नसीब नहीं है। रायगढ़ जैसे शहर स्थायी का विनाश तो एक बड़ा छत्तीसगढ़ से बाहर का राजनीतिज्ञ कर ही चुका है। वह कभी कांग्रेस में रहता है ।कभी बीजेपी में रहता है। लेकिन उसका पावर हर वक्त होती है।वहां से जशपुर, कोरबा और सरगुजा तक आदिवासी इलाका है। बस्तर में पूंजीवादी ऐय्याशी का अलग नक्सलवाद है। वह बस्तरिहा आदिवासियों को बेदखल कर कारखाने लगाना चाहता है। खुलेआम अट्टहास करता है कि लौह अयस्क को इस्पात में तब्दील कर देश प्रदेश का विकास करेगा। यह दम्भ भी करता है कि मनुष्यों को मशीनी इकाइयों में तब्दील कर देगा।

बस्तर को चूसने वाले पूंजीपतियों के गिरोह, मंत्री और बस्तर पुलिस संयुक्त भूमिका खुद ओढ़ लेते है। यही लोग लोकतंत्र की आवाज़ को कुचलने का दुस्साहस करते हैं, यहां तक कि निर्वाचित जनप्रतिनिधि और कुछ पत्रकार भी। आदिवासी नेताओं ने औसत आदिवासी का जीवन सुधारने के बदले अपना मलाईदार तबका तैयार कर लिया है। कोई आदिवासी मंत्री या नेता बस्तर के अवाम पर हो रहे पूंजीवादी हमले, नौकरशाही जुल्म, ठेकेदारों के शोषण, पुलिसिया अत्याचार और नक्सली कत्लेआम के खिलाफ सार्थक संगठित आवाज कहां उठा रहा है? आरक्षण का प्रतिशत, मंत्रिपरिषद, पार्टी संगठन, राज्यसभा आदि आदिवासी नेताओं के वाचाल ठनगन हैं, जिनकी प्राथमिकता आदिवासी जीवन की धड़कनों से कहीं ज़्यादा बोलती है। सेवानिवृत्त आदिवासी नौकरशाहों का भी कोई संगठन नहीं है जो भविष्य की पीढ़ियों के लिए सरोकार दिखाए। बस्तर की इंच-इंच जमीन के लिए कारखानों और खनिज के लायसेंस दिए जा रहे हैं। जब जंगल ही मरुस्थल बन जाएंगे तो न रहेंगे आदिवासी और न ही आदिवास।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।। बस्तर सहित आदिवासी इलाकों के मूल आदिवासियों का शहरीकरण किया जा रहा है। उन्हें जबरिया जंगलों के परिवेश से हटकर शहरों में ठेला जा रहा है ।जहां वे सड़कों के किनारे पड़े रहते हैं। छोटी-मोटी मजदूरियां करते हैं। सस्ती दरों पर लोगों को श्रमिक मिल जाते हैं और धीरे-धीरे मर्दुमशुमारी के कॉलम में उनके धर्म सरना को मिटा दिया गया है । कुछ वर्षों बाद ये सब हिंदू सरकारी दस्तावेजों में लिखे जाएंगे और हिंदू वोट बैंक पुख़्ता कर दिया जाएगा।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *